
यहां मां की गोद में ही बच्चे को दाग देते हैं गर्म सलाखों से, जानिए कहां अंधविश्वास में निभाई जा रही ये दर्दनाक परंपरा
जमशेदपुर। झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के ग्रामीण इलाकों में परंपरा के नाम पर अंधविश्वास का ऐसा खेल खेला जाता है जिसमें मां अपने बच्चे को गोद में लेकर गर्म सलाखों से उसका पेट दगवाती हैं। मां मानती है की उसके बच्चे का दगा पेट उसकी पेट की बीमारियों को दूर कर देगा। बच्चा रोता भी है तो मां मुस्कुराती है।
यह परंपरा यहां वर्षों से चली आ रही है। कई बार इसके चक्कर में छोटे बच्चों की जान तक चली जाती है। फिर भी झारखंड सरकार इस क्रूर परंपरा पर रोक नहीं लगा पा रही है। इस बार भी कोल्हान क्षेत्र के पूर्वी सिंहभूमके ग्रामीण इलाकों में ऐसे दर्दनाक दृश्य देखने को मिले।
सरकार के सारे प्रयास कभी-कभार आदिवासियों के गांवों में निकाली जाने वाली जागरूकता रैलियों तक सीमित हैं। परंपरा को आस्था का विषय बताकर अधिकारी इससे ज्यादा कुछ नहीं करते। छोटे-छोटे बच्चों को इस परम्परा के नाम पर कितनी दर्दनाक पीड़ा से गुजरना पड़ता है इसका सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है।
मकर संक्रांति के दूसरे दिन इसे दिया जाता है अंजाम
मकर संक्रांति के दूसरे दिन सुबह आदिवासी बहुल इलाके में ओझा अलाव जलाते हैं, उसमें चार मुंह वाले सलाख को तपाते हैं। वहींं एक खाट बिछी होती है जिसमें बच्चे को लाकर लिटाया जाता है। उसके हाथ-पैर जकड़ दिए जाते हैं। जाड़े के मौसम में बच्चे के शरीर से कपड़े उतार दिए जाते हैं। कपड़े हटने के बाद बच्चे की नाभि के आसपास चार जगहों पर सरसों का तेल लगा कर उसमें गर्म सलाखों से दाग लगाए जाते हैं। इस दौरान पूरा गांव बच्चों की चीत्कार से गूंजता रहता है। बच्चा जोर-जोर से रोता है लेकिन परिवार के सदस्य उसे इतनी जोर से पकड़कर रखते हैं कि वह तड़प भी नहीं पाता है। दागने के बाद दाग वाले स्थान पर फिर से सरसों तेल लगा दिया जाता है। दुधमुंहे से लेकर पांच साल तक के बच्चों को इस असहनीय पीड़ा से गुजारा जाता है।
लोग करते हैं इस दिन का इंतजार
अंधविश्वास के आधार पर वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को निभाने के लिए लोग इस दिन का इंतजार करते हैं। लोगों का इस परंपरा पर विश्वास कितना गहरा है इसे सुंदरनगर में ‘चिड़ीदाग’ के दौरान मिले ओझा नारू चाकी नाम के एक शख्स की बातों से समझा जा सकता है। ओझा नारू ने कहा कि यह विश्वास की ऐसी परंपरा है जो सदियों से चली आ रही हैं। हम मानते हैं कि इससे पेट की बीमारियां दूर होती है। अगर ऐसा नहीं होता तो इतने लोग इस दिन का इंतजार क्यों करते।
नई पीढ़ी भी रम रही अंधविश्वास में
सबसे चिंताजनक बात यह है कि वर्षों से चले आ रहे इस अंधविश्वास में नई पीढ़ी भी रमती जा रही है। नई उम्र के लोग भी बच्चों को गर्म सलाखों से दागने की यह पीड़ादायक परंपरा सीख रहे हैं। बच्चों को उनके गांवों के देवी-देवताओं का नाम लेकर दागा जाता है।